
श्रवण आकाश, खगड़िया की कलम से
खगड़िया जिले के विभिन्न प्रखंडों के समस्त गांवों में पूरे हर्षोल्लास के साथ दीपों का पर्व दीपावली संपन्न हो गया। सोमवार की शाम से देर रात तक जहां लक्ष्मी गणेश की विधिवत पूजा होती रही। वहीं दीपावली की निशा रात को मां काली की प्रतिमा स्थापित कर पूजा अर्चना शुरू की गई। इस मौके पर लोगों ने आपसी द्वेष को भुलाकर एक दूसरे के घर पहुंच कर दीपावली की शुभकामनाएं दी और खूब मिठाईयों का आनंद लिया। लोग अपने घरों की छतों पर चढ़कर दीपकों की झिलमिलाती रोशनी का खूब मजा लिया। वहीं बच्चे रूक रूक कर आतिशबाजी करते रहे। घर की महिलाएं सजधज कर लक्ष्मी गणेश की विधिवत पूजा अर्चना की। वहीं परंपरा के अनुसार शाम को हर घरों के पुरूषों द्वारा हुक्कापाती खेलने की रस्म अदा की गई। हुक्कापाती खेलने के बाद घर के हर सदस्य अपने बड़ों से आशीर्वाद लेने टोले मुहल्लों में निकल गए। इधर दीपावली की निशा रात को मंदिरों में मां काली की प्रतिमा स्थापित कर विधिवत पूजा अर्चना की गई। कहीं-कहीं पूजा कमेटियों की ओर से जागरण व आरकेस्ट्रा आदि कार्यक्रमों का भी आयोजन किया गया है। वहीँ प्रखंड मुख्यालय समेत कई गांवों में भी प्रतिमा स्थापित कर माता की पूजा की गई।



प्रकाश का पर्व दीपावली पूरे प्रखंड में हर्षोल्लास के वातावरण में मनाया गया। दीपावली को लेकर लोग पूर्व से ही घरों की रंगाई-पोताई की। वहीं दीपावली की संध्या घर के दरवाजे दीवारों और छतों को दीप और मोमबत्तियां से सजाया गया। मां लक्ष्मी की पूजा-अर्चना की गई। तत्पश्चात पाट की संठी से बना हुक्का-पाती की परंपरा निभाई गई। वहीं बच्चों और युवकों ने जमकर आतिशबाजी की। इस बार चीन निर्मित समान का बहिष्कार का असर देखा गया। जिसके कारण कई घरों में चीन निर्मित बिजली समान की सजावट नहीं कर देशी समानों से सजावट की गई। दीपों बल्बों और मोमबत्ती की रोशनी की सजावट देखते बनती थी। पूजा उपरांत एक-दूसरे को मिठाई खिलाकर दीपावली की बधाई दी।


आपको ज्ञात हों कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है और यह भी एक सच्चाई हैं कि बदलते परिवेश में भारतीय संस्कृति की परंपरा को गांव के लोगों के द्वारा सहेज कर रखा जा रहा है। बात यदि रोशनी का त्योहार दीपावली में हुक्का-पाती खेलने की परंपरा की करें, तो आज भी गांव में यह बरकरार हैं। दूसरी तरफ शहर में हुक्का-पाती बनाने व खेलने की पौराणिक परंपरा धीरे-धीरे कम हो रहा या फिर बदल रहा हैं। जबकि गांव में आज भी दीपावली के दिन कुल देवता, खेत-खलिहान, चापाकल, तुलसी के पेड़ के लिए जूट के पौधे से निकाला गया संठी से हुक्का-पाती बनाया जाता हैं। साथ ही दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजा के बाद हुक्का-पाती खेला जाता है और घर में माता लक्ष्मी के आगमन हेतु विनती की जाती हैं। जिसके उपरांत बुजुर्गों से आशीर्वाद लिया जाता हैं।



कार्तिक मास में दीपावली के मौके पर आकाश दीप जलाने की परंपरा सदियों पुरानी रही हैं। मान्यता है कि आकाश दीप पितरों एवं देवों की राह आलोकित करते हैं। एक वक्त था जब लोगों में होड़ मची रहती थी, कि दीपावली के समय किसका आकाश दीप सबसे ऊंचा होगा। लेकिन अब आकाश दीप भी छत की ऊंचाई तक ही सिमट गया हैं। जबकि पूर्व में बांस के सहारे काफी उंचाई पर आकाश दीप टिमटिमाते नजर आता था। लेकिन भागदौड़ की जिन्दगी के बीच अब पुरानी परंपरा को भी भूला जाने लगा हैं। एक वो वक्त भी था जब आकाश दीप बांस के कमाची ओर सप्तरंग के कागजों से झमकदार बनाया जाता था।लेकिन वक्त के साथ अब बहुत कुछ बदल गया है। ग्रामीण क्षेत्र में आज भी कुछ लोग आकाश दीप बनाते हैं, लेकिन शहरी क्षेत्रों में रेडिमेड आकाश दीप खरीदकर काम चला लिया जाता है। दीपावली से छठ पूजा तक टिमटिमाते रहने वाला हवाई जहाज, दिलनुमा, स्टार, त्रिभुजाकर, गोलाकार आकृति जैसा आकाश दीप अब बहुत ही कम नज़र आता हैं।


आकाश दीप की संकल्पना त्रेतायुग में आई थी। बताया जाता है है कि राम के राज्याभिषेक के समय श्रीराम के चैतन्य से पुर्नीत वायुमंडल का स्वागत घर-घर में आकाशदीप लगाकर किया गया था। मान्यता यह रही है कि दीपावाली की कालावधि में आपमय तत्त्व-तरंगों से संबंधित अधोगामी तरंगों का उर्ध्व दिशा में प्रक्षेपण होना आरंभ होता है। जिससे वातावरण में जड़ता आकर अनिष्ट घटकों के प्रादुर्भाव में वृद्धि होने के कारण घर में जडता का समावेश होकर पूरी वास्तु दूषित कर देती हैं। जिसे रोकने हेतु दीपावाली के पूर्व से ही घर के बाहर आकाश दीप लगाया जाता है। जिसके तेजतत्त्व का समावेश होने से ऊर्ध्व दिशा में कार्यरत आपमय तरंगें नियंत्रित होती हैं और तेजतत्त्व की जागृतिदर्शक तरंगों का गोलाकार पद्धति से संचारण होता हैं।
