सत्ता सृजित उत्सव का
बना अनाथ अश्रुदास हूँ
राष्ट्र का जन हूँ जनतंत्र हूँ
जी जी कर मरता हूँ
मर मर कर जीता हूँ
एक अदद इंसान हूँ
बनना नहीं चाहता
हालातों से शैतान हूँ!
राग रागिनियों में बहती
हवाओं में धीरे धीरे
घुलते स्याह- सफेद रंग से
उजड़ता परिवार हूँ
मृत्यु उपत्यका नहीं
यह मैं हूँ मेरा देश है!
शोधपरक- रोचक तथ्यों में
छिपे मर्म का गूढ़ संदेश हूँ
गूंगे की रूलाई से सृजित
परिवेश अनुरूप प्रयोग हूँ विरासत बचाने की हठ लिए
कोशिशों की कहानियाँ हूँ!
परिस्थितियों से जूझती
उतार- चढ़ाव की मोड़ों से
गुजरती गिरकर संभलती
हताशा के चरम पर
हौसले का परचम लहराती
वासनाओं का शिकार बन
मजबूती से खड़ी
विकलांग मन के भीतर
मजबूत जिंदा माँ हूँ!
सत्ताओं की कुरूपताओं से
अंकित चित्रों से संवाद करता
संवाद की परिणति में
वर्तमान परिवेश का कटाक्ष हूँ
स्वयं से संवादरत जनसंवाद हूँ!
फैली मिट्टी की सौंधी महक में
एक अभिनव प्रयोग हूँ
सुनसान सड़कों पर
दूर दूर तक गूंजती
पथरीली सड़क का पदचाप हूँ!
सफेद, निर्लिप्त, निरीह प्राणी
फक पड़ा चेहरा लिए
है नामोनिशान नहीं आंखों में
प्यार, बिदाई, पहचान का
उन्माद में गर्म लोहे की छड़ पकड़े
आस्मां में वेदना की गूँज हूँ!
भय के संवेग में उठ खड़ी हुई
उदास हवा की धुन हूँ
व्यथा भरी अजीब वितृष्णा में
एक खामोश उत्तेजना का सीलबंद होंठों की प्रार्थना हूँ.
मौलिक स्वरचित रचना.
@ अजय कुमार झा
मुरादपुर, सहरसा, बिहार.