किनारे

बिन मांझी चली नदिया पार,इक नए किनारे की ओर।मुख पर उदासी लिए चली,मन में विचारों का है शोर।निहारती पंछियों के समूह को,कितने सुंदर है लग रहे।सब साथ है इक पल यहाँ,दूजे पल उड़कर कहीं चले।न बिछड़ने का इन्हें डर ही है,ना अकेलेपन का खौफ है।नभ मैं उड़ना इन परिंदों को,स्वतंत्रता का इन्हे जोश है।मैं ये…

nandani laheza raypur

बिन मांझी चली नदिया पार,
इक नए किनारे की ओर।
मुख पर उदासी लिए चली,
मन में विचारों का है शोर।
निहारती पंछियों के समूह को
,कितने सुंदर है लग रहे।
सब साथ है इक पल यहाँ,
दूजे पल उड़कर कहीं चले।
न बिछड़ने का इन्हें डर ही है,
ना अकेलेपन का खौफ है।
नभ मैं उड़ना इन परिंदों को,
स्वतंत्रता का इन्हे जोश है।
मैं ये सोचती ,पाने आज़ादी,
निकली जो घर से हूँ अभी।
क्या पाऊँगी मैं भी अपना गगन,
अभिलाषाओं के पंख जो लिए उडी।
ना चाहती मैं बिछड़ना अपने रिश्तों से,
मेरा सब कुछ तो इस किनारे हैं।
बस ढूढ़ना चाहूँ स्वयं को मैं ,
खो सी गई मेरी पहचान है।

नंदिनी लहेजा
रायपुर(छत्तीसगढ़)

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