महात्मा गांधी के स्वाधीनता आंदोलन से प्रेरित होकर आजादी के लडाई में सक्रिय लाल शहीद बैजू को भुल गये। Inquilabindia

महात्मा गांधी के स्वाधीनता आंदोलन से प्रेरित होकर आजादी के लडाई में सक्रिय लाल शहीद बैजू को भुल गये। Inquilabindia

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क्यों भूल गए शहीद बैजू को.. ??

जी हां स्वाधीनता आंदोलन के एक कर्मठ और देश के लिए समर्पित योद्धा बैजू मंडल मुंगेर जिले के बरियारपुर थाना अंतर्गत बरियारपुर बस्ती का नौजवान था। उनका जन्म बरियारपुर में ही 24 अक्टूबर 1904 को हुआ था उनके पिता का नाम चामू मंडल था। जवानी का आहट होते ही वह महात्मा गांधी के स्वाधीनता आंदोलन से प्रेरित होकर आजादी की लड़ाई में सक्रिय हो गए। परिवार के लोग कुछ सोच कर उनकी शादी मुंगेर जिले के ही खड़िया गांँव में चुन्की देवी से कर दी। लेकिन वे आंदोलनकारियों के साथ मिलकर अंग्रेजों के छक्के छुड़ाते रहे। वे अक्शर अंग्रेजी फौज पर घातक हमला कर दिया करते थे। एक बार उनके घर तक ब्रिटिश फौज उन्हें खोजने आई, लेकिन बैजू के भोलापन देखकर ब्रिटिश सैनिक वापस चले गए।


कालचक्र में बैजू दो पुत्री के पिता बन गए। उनके बड़े भाई शिवनाथ मंडल जो रेल कारखाना में ही राजमिस्त्री के रूप में कार्य करते थे, ने उन्हें पारिवारिक दायित्व और आंदोलन में जोखिम बताकर बहुत समझाया। बड़े भाई की बात से बैजू को दो पुत्रियों के लालन पालन का एहसास हुआ। आखिर मन मारकर वे रेल कारखाना जमालपुर में काम पकड़ लिए। कुछ दिनों के प्रशिक्षण के बाद उन्हें ब्रास फाउण्डरी में द्वितीय श्रेणी का मोल्डर के रूप में काम करने का आदेश मिला। काम में भी कारखाना के अधिकारी उनकी निपुणता का लोहा मानने लगे। कुछ ही दिनों में ब्रास फाउंड्री का काम निर्धारित समय से पूर्व करने में सफल होते रहे। रोज कुली गाड़ी से घर आते-जाते आंदोलनकारी साथियों से भी यदा-कदा मुलाकात हो जाती। खट्टी मीठी बातें होती।


18 अप्रैल 1929 को बैजू मंड़ल को एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। जिसका नाम उन्होंने “जागो” रखा। बाद में खुशी का इजहार करते हुए “जागो” यानि “जगदीश” के नाम से ही बरियारपुर में सड़क किनारे एक भूखण्ड खरीद कर पुत्र को भेंट किया।
इसी बीच असहयोग आंदोलन का बिगुल बजा।


एक बार फिर बैजू मंडल का तेवर देश प्रेम में भींगने लगा। अब उन्हें किसी ब्रिटिश अधिकारी का रोब-दोब रास नहीं आता। तभी तो रात्रि शिफ्ट में एक ब्रिटिश अधिकारी द्वारा गाली-गलौज करने पर, एक सहकर्मी की मदद से उस ब्रिटिश अधिकारी को कटीले तार से हाथ पांँव बांँधकर ब्रास फाउंड्री की भठ्ठी में झोंक दिया और अपना काम करते रहें। किसी को भनक तक नहीं लगी। दूसरे दिन कई बड़े-बड़े अधिकारी आकर लापता अधिकारी के खोजबीन में जुटे। बैजू जी से भी पूछताछ किया गया, वे बताए कि जब मैं अपना ड्यूटी ऑफ करके जा रहा था तो साहब वार्ड-चेम्बर में ही उपस्थित थे। उनका दूसरा साथी भी इसी बात को दोहराया। बात सामान्य हो गई और बैजू मंड़ल का मंसूवा बढ़ गया।


16 दिसंबर 1930 के दिन असहयोग आंदोलन का कार्यक्रम परवान पर था। कारखाना कर्मी “काम का बहिष्कार करो” के नारे के साथ पुल होते हुए बाहर निकलने का प्रयास कर रहे थे, ब्रिटिश फौज के साथ धक्का-मुक्की से बात बढ़ी और पत्थरवाजी के साथ झड़प तेज हो गई। बैजू मंडल के बड़े भाई शिवनाथ पर भी ब्रिटिश फौज की लाठियां बरसी। यह सब देख बैजू मंडल का गुस्सा सातवें आसमान पर चला गया। वे दौड़कर भीतर गए और दोनों हाथ में खन्ती लेकर अंग्रेजी फौज पर फेंकने लगे। कई फौजी बुरी तरह घायल हुए, तभी अचानक फौजियों की बंदूक गरजी और दनादन दो गोलियाँ बैजू मंड़ल के सीने और गले में लगी। बैजू मंडल जमालपुर- कारखाना के पुल पर ही भारत माता की चरणों में शहीद हो गए।

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