पिंजरा

– क्या सोच रहा है मित्र मेरे,हमें देख पिंजरे में ,पंखों को अपने समेटे हुए।हां व्यथित है हम ,उदास बड़े ,चाहते उड़ना फिर से ,खुले गगन में पंख अपने फैराते हुए।हां ! मित्र ना भाता पिंजरा मुझे,चाहे दाना पानी सब है यहाँ।ईश्वर ने बनाया पंछी हमें, उड़ना हैं हक़ हमारा यहाँ वहां।पिंजरा तो पिंजरा होता…

क्या सोच रहा है मित्र मेरे,हमें देख पिंजरे में ,
पंखों को अपने समेटे हुए।
हां व्यथित है हम ,उदास बड़े ,चाहते उड़ना फिर से ,
खुले गगन में पंख अपने फैराते हुए।
हां ! मित्र ना भाता पिंजरा मुझे,चाहे दाना पानी सब है यहाँ।
ईश्वर ने बनाया पंछी हमें, उड़ना हैं हक़ हमारा यहाँ वहां।
पिंजरा तो पिंजरा होता है, चाहे लौह का हो या सोने का।
मिल जाता कैदखाना हमें, जीवन बन जाता बंदी सा।
माना पहले ना समझता था, तू आम इंसान, पिंजरे में रहने की पीड़ा
पर महामारी के दानव से बचने को,था स्वयं को तूने कैद किया
सब सुख तेरे घर के भीतर थे ,प्राणो को बचने था तू बंद।
पर फिर भी मचलता था मन तेरा, क्योंकि आदी था तू रहने को स्वछंद।
फिर क्यों करता हम पंछियों को, तू कैद पिंजरे में, केवल अपने आनंद के लिए।
है तड़प रहा ह्रदय हम दोनों का, स्वछंद नभ में उड़ने के लिए।
हम सब तो, मानव! ईश्वर के, बनाये सजीव प्राणी है।
मैं तो ना देता, कभी कष्ट तुझे,पर मुझे तो बन शिकार, गोली भी तेरी खानी है।

नंदिनी लहेजा
रायपुर(छत्तीसगढ़)
स्वरचित मौलिक

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