अंश होते हैं मात पिता के,
कहलाते उनकी पहचान।
बसते प्राण जिनमें हैं अपने,
सच,कितनी प्रिय होती है संतान।
नव माह गर्भ में सींचे माँ,
जैसे बीज को माली।
लेती जब जन्म संतान,
करते लालन-पालन,रखवाली।
संस्कारों की खाद से, गुल को अपने,
पोषण मात-पिता देते।
शिक्षा के जल से, सींचते जीवन बालक का,
परवरिश में जान लगा देते।
उनकी हर ख़ुशी और जरुरत को करते पूरा,
सदा श्रम को तत्पर रहते।
चाहते सदा महकती रहे,बगिया उनकी,
जीवन अपना न्योछवर करते।
कभी प्रेम की करते वर्षा ,
कभी डांट की धूप भी।
उनकी उपलब्धि पर मन हर्षा,
तो असफलता से उनकी मायूस भी।
फिर इक दिन जब परवरिश उनकी,
सुघड़ रूप ले लेती है।
व्यक्तित्व के द्वारा आती सन्मुख सबके,
यही तो उनके जीवन की कमाई है।
नंदिनी लहजा
रायपुर(छत्तीसगढ़)