❤️💐शिशिर ऋतु 💐❤️

अलसाई सी हैं सभी दिशाएं,खग मृग सब लगते सोए हैं।ओढ़ कुहासे ‌का यह घूंघट,लगता है वृक्ष अभी रोए हैं। क्षीण प्रकाश हुआ दिनकर का,और पवन मुंह जोर हुई है।अगहन में कुछ पता चले ना,कब रजनी कब भोर हुई है। लता वृक्ष सारे मुरझाए है,कीट पतंगे सब दुबक गए हैं।दादुर मोर सभी चुप- चुप हैं,कोयल मैना…

मुक्ता शर्मा

अलसाई सी हैं सभी दिशाएं,
खग मृग सब लगते सोए हैं।
ओढ़ कुहासे ‌का यह घूंघट,
लगता है वृक्ष अभी रोए हैं।

क्षीण प्रकाश हुआ दिनकर का,
और पवन मुंह जोर हुई है।
अगहन में कुछ पता चले ना,
कब रजनी कब भोर हुई है।

लता वृक्ष सारे मुरझाए है,
कीट पतंगे सब दुबक गए हैं।
दादुर मोर सभी चुप- चुप हैं,
कोयल मैना भी चुप गए हैं।

सूरज है कुछ बुझा बुझा सा,
प्रकृति सकल स्तब्ध खड़ी है।
वृक्ष खड़े हैं अब ‌दम साधे,
पत्तों से बिछुड़न की घड़ी है।

फूलों का मकरन्द जम गया,
तितली फिरती हैं मारी मारी,
बाट जोहती हैं अब फागुन की,
महकेगी जब सरसो की क्यारी।

नववधू सी घूंघट में रहती है,
धूप के देखो हैं नखरे कितने।
रहती है अब छुई- मुई बन,
कोहरे के पहरे में ही निकले।

सर्द ‌ हवा‌ के‌ निष्ठुर थपेड़े,
हरने लगे हैं अब ‌चैन सभी का।
चाय काॅफी मूंगफलियां खाना,
काम है अब दिन रैन सभी का।

आने वाली हैं अब रातें पूस की,
अब( हलकू) थर -थर कांपेगा।
झबरा और अलाव के सहारे,
लम्बी सर्द रतियां काटेगा।।

मुक्ता शर्मा मेरठ
मौलिक एवं स्वरचित‌ रचना

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