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संभावनाओं की तलाश में
ऊंघता मुमूर्षित गंवई कस्बा
अटकी स्मृतियों के दरबे से
हाथ जोड़े झुकाये सिर को
है करूण नजरों से निहारता
भद्रलोकी नारों की गठरी को.
देख अखबारी रंगीन शब्द को
मीडिया के कर्णभेदी स्वर को
बौद्धिक एकालाप से जन्म ले
वाद विवाद के अनहद शोर में
सवालों के सलीब पर टंगकर
सहकार बनने की आस्था लिये
सत्ता के साथ कदमताल करते
तब पंक्तियाँ बन जाती सुर्खियां
भीड़ के बीच र्निवस्त्र होते देख
जब तनती नहीं भृकुटियां
नदारद हैं सवालों के तेवर
हाहाकार करते उमड़ पड़े
गधेरे मिटा नहीं पाता जब
नुमाइश छलकते संघर्ष के
हम – वो का मुकम्मल फर्क.
अनुभवों से ढले विचारों से तप
धौंकनी के थाप पर मचलता
नई शक्ल में ढलने को आतुर
रक्तिम लाल लोहा गल रहा है
लहर खाती चिंगारियों के लब
बुदबुदा रहे हैं बदलाव के बोल.
मौलिक स्वरचित रचना.
@ अजय कुमार झा.
मुरादपुर, सहरसा, बिहार.