शराफ़त

शराफ़त से आज़ जिसने ज़िंदगी जीया,उसके साथ लोगों ने क्या-क्या नहीं किया। कभी अपने ही खास रिश्तेदारों ने उसे फरेबी रिश्तों में बांधा,कभी अपने ही समाज ने उसे मक्कार बनाया। कभी यारों की यारी नापसंद आई,कभी उसके शराफ़त की ज़िंदगी न सुहाई। कभी मकतब से इस्तीफ़ा देना पड़ा,कभी मस्जिद में मौलवी ने बदसलूकी किया। कभी…

शराफ़त से आज़ जिसने ज़िंदगी जीया,
उसके साथ लोगों ने क्या-क्या नहीं किया।

कभी अपने ही खास रिश्तेदारों ने उसे फरेबी रिश्तों में बांधा,
कभी अपने ही समाज ने उसे मक्कार बनाया।

कभी यारों की यारी नापसंद आई,
कभी उसके शराफ़त की ज़िंदगी न सुहाई।

कभी मकतब से इस्तीफ़ा देना पड़ा,
कभी मस्जिद में मौलवी ने बदसलूकी किया।

कभी बाजारों में सताया गया,
कभी बुरे बंदों के हाथों पीटाई खायी।

कभी सड़क चलते सिपाही के हत्थे बेगुनाह साबित हुआ,
कभी थाने में मामला दर्ज़ हो गया।

अक्सर काऩून अंधे होते हैं,
बेकसूर को ही मुज़रिम बनाते हैं।

अदालत में पेश किये जाते हैं,
ज़ज के लाल क़लम फांसी की सज़ा से फांसी पर लटक जाते हैं।

राह चलते कुछ मनचले लड़के,
कुछ शरीफ़ लड़कियों के साथ बदसलूकी कर देते हैं।

नेताओं के धमकियों को बैखोफ़ चुनौती देने वालों को,
दिनदहाड़े कत्लेआम कर दी जाती है।

यौन-शोषित से पीड़ित कुछ लड़कियां थाने में अपनी न्याय की गुहार लगाती है,
शराबी सिपाहियों की बुरी निगाहें उसे अपना हवस का शिकार बना लेती है।

दबंगों के आगे शरीफों की एक न चलती,
शराफ़त से जीने वालों को कुछ भी नहीं चलती।

शराफ़त की नक़ाब में अब कुछ नहीं रखा है,
बुरे बंदे के साथ बेख़ौफ़ बीच राह में सज़ा-ए-मौत होती है।

अब शरीफ़ इंसानों के ज़िंदगी में क्या रखा है?
हर जगह उसे तकलीफ़ लिखा है।

बस एक आसमां में बैठे ख़ुदा की राह देखो,
अपने जेहन और रूह में ज़न्नत की सैर करो।

स्वरचित एवं मौलिक रचना

प्रकाश राय ✍️
समस्तीपुर, बिहार

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