*विजय का पर्व दशहरा*
*विधा—-गीत*
*मात्रा–१६—–१४*
नकली रावण खूब जलाकर,
हमने खुशी मनाया है ।
क्या मन में जो रावण बैठा,
उसको कभी जलाया है ।।
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त्रेता में था एक अकेला,
दशकंधर रावण पापी ।
जिसके भय से देव मनुज सब,
सारी त्रिभुवन है कांपी ।।
महाप्रतापी वह था रावण,
सबको वही छकाया है*
*नकली रावण खूब जलाकर, हमने खुशी मनाया है*
हरण किया था मातु सिया का,
धर कर साधू वेश छला ।
सजा उसी का अब तक पाता,
आया है हर वर्ष जला ।।
अब तक पापी बना हमारे,
मन में वही समाया है *
*नकली रावण खूब जलाकर, हमने खुशी मनाया है”
आज न जाने कितने रावण,
यहाॅं वहाॅं दिख जाते हैं ।
जननी सम नारी को पापी,
कैसे खूब सताते हैं ।।
क्या कोई बन राम यहाॅं पर,
उनका कुछ कर पाया है*
*नकली रावण खूब जलाकर, हमने खुशी मनाया है*
अगर जलाना है कुछ भी तो,
मन का पाप जला डालो।
रावण खुद ही जल जाएगा ,
गर अभिमान गला डालो।
*राम*जलाने से पुतले को,
क्या रावण जल पाया है*
*नकली रावण खूब जलाकर, हमने खुशी मनाया है*
*रचयिता*
*रामसाय श्रीवास”राम”किरारी बाराद्वार*
( *छग* )