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प्रेम की डोर से बंधा
दर्दे धुआं का अवशिष्ट
राख बन चुकी कहानी
बेघर विचरता पथिक
धूप में तपता सहिष्णु
बिन बादल टपक रहे
बूंदों में पानी बारिश की
अंधे हैं हम
कुछ दिख ही कहाँ रहा है
ना आपको दिख रहा है
ना कैमरे को दिख रहा है
गोया कि कैमरे भी वही है
सजाए नफरती बाजार में
प्रेम खरीदने निकले हैं
जहालत में जिंदगी ढूंढते हैं
अंधेरों के बबंडर में सपनों के
दिए जलाने बैठे हैं.
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मौलिक स्वरचित रचना.
@ अजय कुमार झा.
मुरादपुर, सहरसा, बिहार.
25/8/2022.
प्रेम की डोर.
—————— प्रेम की डोर से बंधा दर्दे धुआं का अवशिष्ट राख बन चुकी कहानी बेघर विचरता पथिक धूप में तपता सहिष्णु बिन बादल टपक रहे बूंदों में पानी बारिश की अंधे हैं हम कुछ दिख ही कहाँ रहा है ना आपको दिख रहा है ना कैमरे को दिख रहा है गोया कि कैमरे भी वही…
