जाने कहां गई दया ममता जहान से,
कोई जिए या फिर मरे इसकी फिकर नहीं।
पैरों तले कुचल के उसको आगे बढ़ गए,
उठ के खड़ा वो हो सके इतना सबर नहीं।
पत्थर के हो चुके हैं दिल जज़्बात मर चुके,
अब बहते अश्क का कहीं होता असर नहीं।
झोली में आ गिरेंगे फ़ूल खुशियों के स्वयं
औरों के लिए बोए जो कांटे अगर नहीं।
डूबे रहे सभी यदि अपने ही स्वार्थ में,
इंसानियत की हो सकेगी फिर गुज़र नहीं।
मीनेश चौहान “मीन”
फर्रुखाबाद (उत्तर प्रदेश)