वाक्छल की बहती आंधी में
लाजबाब झूठ के आगे
सच को हारते देखा
सत्ता युद्ध के समरांगन में
नागरिकों को ललकारते देखा
शपथ की परिभाषाओं में
संविधान को कांपते देखा
तंत्र की तानाशाही में
लोक का विस्थापन देखा
बहुसंंख्यकता की होड़ में
अल्पसंख्यकता की चिंघाड़ से
जहरीली साम्प्रदायिक नदी में
वोटों से वैतरणी पार होते देखा
क्रूरता की निगाहों में
जिंदगी को हांफते देखा
घूरते संविधान में
लोकतंत्र को कांपते देखा
गोडसे की प्रेत छाया देख
गांधी को चीखते देखा
मार्क्सवादी परिधान को
चिथड़ों में बिखड़ते देखा
रामनामी राष्ट्र कृष्णमय हो
लहुलुहान हस्तिनापुर देखा
जंगल के वियावन में
लोकतंत्र को भटकते देखा.
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मौलिक स्वरचित रचना.
@ अजय कुमार झा.
मुरादपुर, सहरसा, बिहार.
चुनावी चौसर.
वाक्छल की बहती आंधी मेंलाजबाब झूठ के आगेसच को हारते देखासत्ता युद्ध के समरांगन मेंनागरिकों को ललकारते देखाशपथ की परिभाषाओं मेंसंविधान को कांपते देखातंत्र की तानाशाही मेंलोक का विस्थापन देखाबहुसंंख्यकता की होड़ मेंअल्पसंख्यकता की चिंघाड़ सेजहरीली साम्प्रदायिक नदी मेंवोटों से वैतरणी पार होते देखाक्रूरता की निगाहों मेंजिंदगी को हांफते देखाघूरते संविधान मेंलोकतंत्र को कांपते देखागोडसे…
