बचपन जिसका था भोलाभाला,
यौवन के जोश में, स्वयं को खोया,
जब बना बालक से जवान ,
कि कितना बदल गया इंसान।
अब सोचे मुझ जैसा न कोई,
कौन मात-पिता, मित्र और भाई,
ना करता रिश्तों का मान,
हाँ कितना बदल गया इंसान।
सच्चाई की राह को छोड़ा,
लोभ तृष्णा में स्वयं को जकोड़ा,
बन गयामानव से हैवान,
जी कितना बदल गया इंसान।
है लाखों की भीड़ में अकेला,
फिर भी अभिमान को न मन से धकेला,
झूठे दंब और माया का, करता रहता है बखान,
सच कितना बदल गया इंसान।
नंदिनी लहेजा
रायपुर(छत्तीसगढ़)
स्वरचित मौलिक अप्रकाशित