पिता जी ठीक कहते थे,
कविता से पेट नहीं भरता।
गोल, चौकोर या तिकोनी,
थोड़ी जली हुई भी चलेगी,
पेट भरता है बस रोटी से।
भूखे पेट कविता लिखना,
जैसे आग पर चलना।
कविता चाहे कितनी भी,
अच्छी क्यों ना लिखी हो।
खाली पेट कविता “शलभ”,
अब अच्छी नहीं लगती।
ना ही सुनने वाले को,
ना ही सुनाने वाले को।
© ® शलभ गुप्ता,
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