जो उठा ह्रदय की वीणा से, वह नैसर्गिक स्वर बन जाने दो
बाँधो ना मुझको यूं सरले, उड़ मुक्त गगन में जाने दो
दी त्रासदी और अबुझ प्यास
फ़िर पान हुआ करुणारस का
क्यों बरस पड़ीं तुम मृदु मेघों सी
यह भी कारण असमंजस का
छलक रहा जो सजल नयन में मोती बन ढ़ल जाने दो
झूठे अनुबंधों में रह जाये तो
मन को सुख है कब आता
शब्दों के उच्चारण से ज़यादा
फिर गूंज प्रेम है कब पाता
थीं तुम सपनों के संचय में अब थाह नहीं तो जाने दो
तेरे ही सुख की वर्षा से मैं
धन्य हुआ हूँ आज प्रिये
पर तेरे इन त्राणो का बंधन
है न मुझे स्वीकार प्रिये
सूखी सी इस डाली को तुम फ़िर कुछ-कुछ हिल जाने दो
चला क्षितिज के पार स्वप्न जब
हाथ लिये आशा की गठरी
गिरा रहीं क्यों सूखे अधरों पर
सुमुखी, भरी लोचन की गगरी
बस हृदय की तप्त अग्नि से, सब मरुथल हो जाने दो
बाँधो ना मुझको यूं सरले, उड़ मुक्त गगन में जाने दो
रिपुदमन पचौरी