इस भागती हुई जिंदगी से, कुछ वक्त चुराया जाए,
बुझती हुई आंखों में, एक दीप जलाया जाए।
कहने को जब अपने हैं,अपनों की तरह मिला जाए,
औरों को अपना बनाए,खुद को अपना बनाया जाए
है दो दिन की ये जिंदगी, हंसकर तो गुजारा जाए,
छोड़कर कल की फिक्र, बस आज में जिया जाए।
सुना रहा हर कोई अपना, औरों की भी सुना जाए,
किसी मुरझाए चेहरे पर, एक हंसी तो लाया जाए।
हर दिन भले हो अपना, एक शाम ऐसा भी जाए,
किसी कांपते हाथों को, अपने हाथों से थामा जाए।
इंसानियत ही एक मजहब, इस मजहब को अपनाया जाए,
किसी आंखो के मोती को, अपने हाथों से चुना जाए।
हर रात हो जैसे दिवाली, हर दिन ईद जैसे आए,
दीप जले हर आंगन में, सबको गले लगाया जाए।
है ‘लता’ की यही ख्वाहिश, नफरत को मिटाया जाए,
अमन-शांति के फूल खिले, प्रेम का बगिया सजाया जाए।
स्वरचित मौलिक रचना,
रंजना लता
समस्तीपुर, बिहार